जिन्दगी कितनी तन्हा,
कितनी अकेली,
मंजिले तलाशती राहे,
उन राहो पर वह भी,
अकेली बढ़ रही है ,
तलाशने अपनी मंजिल को ,
उसके लब खामोश पर
आँख से बहते आँसू ,
उसके दिल का हाल बयाँ करते है
इन तन्हा राहो में किससे
उम्मीद करे कोई ,
हर तरफ तो है,
केवल पत्थर के दिल,
वह खुद भी तो एक पत्थर है ,
तो क्या पत्थर को दर्द होता है ?
शायद हा ! क्योकि
उसका भी अपना एक वजूद है
---- प्रतिभा शर्मा
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