गुरुवार, 3 जून 2010

मेरे दिल की वो किताब

आज फिर खोली है मैने ,
अपने दिल की वह पुरानी किताब ,
जिसके पीले पड़े पन्नो पर
सहेजे हुए रखे है मेरे
कुछ अधूरे , कुछ टूटे से
तुम्हारे साथ देखे वो सब ख्वाब
बीते जमाने का हमारा तुम्हारा तराना
ताज़ा है आज भी ज़हन में
मेरे जीवन में तुम्हारा आ जाना
छोटी से उस बात पर ,
बेवजह रूठना हमारा
यही शिकायत है बस तुमसे
तुम्हे भी तो ना आया हमे मनाना
जाना तुम्हारा मुझसे दूर
फिर कभी लौट कर ना आना
आज भी दिल मचल उठता है
 तुम्हारे साथ के लिये
जब भी आता है बारिश का
 वह मौसम सुहाना
तुम्ही बतादो कैसे बहलाऊ
इस नादान मन को
चलता नहीं है जिस पर
 कोई भी अब नया बहाना
                            --- प्रतिभा शर्मा

9 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

waah bahut umda rachna

Ra ने कहा…

तुम्ही बतादो कैसे बहलाऊ
इस नादान मन को
चलता नहीं है जिस पर
कोई भी अब नया बहाना
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !!! बेहद उम्दा रचना !!!!
http://athaah.blogspot.com/

sanu shukla ने कहा…

यही शिकायत है बस तुमसे
तुम्हे भी तो ना आया हमे मनाना

bahut sundar rachna hai

Ra ने कहा…

समय निकालकर पिछली भी पढता हूँ ...

Shekhar Kumawat ने कहा…

bahut sundar

bahut gahre bhav

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

bahut achhi rachna....

शारदा अरोरा ने कहा…

सुन्दर है , बहुत दूरी तो नहीं थी मगर वो क्या चीज है जो हाथ बढ़ाया न जा सका ।

माधव( Madhav) ने कहा…

बहुत ही अच्छी रचना.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत अच्छी रचना ... ये सच है किसी को इतना नही रूठने देना चाहिए की सारे द्वार बंद हो जाएँ ...