सोमवार, 17 मई 2010

इस रिश्ते को क्या नाम दू ?

मै एक तरु के समान,

खड़ी हूँ नितांत अकेली एक मैदान में

तुम धरती के समान

संभाले मुझे अपनी गोद में ,

पर तुम में समाहित होकर भी मै तुममें नहीं

मै एक पर्वत के समान

खड़ी हु एकदम कठोर बनी,

तुम आकाश के समान देते रहे अपनी छत्रछाया,

जिसमें मैने हर कठनाई को झेला,

पर इतनी ऊंचाई के बाद भी मेरी पहुच तुम तक नहीं

मै एक मुसाफिर के समान ,

चल रही हु अकेली अपनी राह पर

इन गहरी स्याह रातो में

तुम चाँद के समान मेरा मार्ग दर्शन करते हुए

मेरे साथ साथ चलते हो ,

पर मेरे हमराह होकर भी तुम मेरे हमसफ़र नहीं

कितना अजीब है ना यह रिश्ता कि ,

तुम मेरे होकर भी मेरे नहीं और मै तुम्हारी नहीं???

-- प्रतिभा शर्मा


1 टिप्पणी:

Pratibha ने कहा…

कुछ रिश्ते ऐसे होते है , जिन्हे हम कोई नाम नहीं दे सकते , वह होते हुए भी नहीं होते, मेरी यह कविता उन्ही रिश्तो के नाम है जो दिल से जुड़ा है बिना किसी चाहत के बिना किसी शर्त के, जिनके सन्दर्भ में यह कह जा सकता है की इन में अभिवक्ति की कोई जरुरत नहीं होती,